प्रस्तुति "डाटला एक्सप्रेस"
तैर रहे हैं तेरी आंख में काजल , पागल !
आंसू उमड़ रहे क्यों जैसे बादल ? पागल !
धरा तीक्ष्ण, उद्विग्न गगन, भैरवी पवन ;
आहत है सुकुमार-गात मूर्छित प्रसून-मन ।
खोल हृदय पट,बंद न कर,दुख-सांकल , पागल !
आंसू उमड़ रहे क्यों जैसे बादल ? पागल !
ज्योतिर्मय हो, दीपशिखा, तुम शांत चेतना ;
व्यापक हो ब्रह्मांड सदृश क्या तुम्हें मूर्छना ?
किस तम का तुम ओढ़े बैठी आंचल , पागल !
आंसू उमड़ रहे क्यों जैसे बादल ? पागल !
यज्ञ पश्च की धूम्र अग्नि हो मधुर आचमन ,
सुरभित तुझसे सारा जग, आलोकित कन-कन ।
छनक रही है चतुर्दिशा त्वम छागल , पागल !
आंसू उमड़ रहे क्यों जैसे बादल ? पागल !
आत्ममुग्ध हो, कर्ता का अधिकार बोध है ;
जीव और परमात्म मध्य का बस विरोध है ।
स्व-विस्मृत हो ऐसे जैसे पागल , पागल !
आंसू उमड़ रहे क्यों जैसे बादल ? पागल !!
सुनील पांडेय / जौनपुर
8115405665