ग़ज़ल टूटे हुए अरमानों का दरिया है
दर्द को बेचने का ख़ूबसूरत ज़रिया है (31)
मेरी ग़ज़लें मेरे हर दर्द की अब चाबी हैं
मेरी नाक़ाम ज़िन्दगी की कामयाबी हैं (32)
ख़ुदा! मेरा सनम ना जाने कितना सीनाज़ोर है
मोहब्बत देने में कंजूस, तो लेने में सूदख़ोर है (33)
ये कल की इमारत का मलबा है मेरा
इसी से नई कल इमारत बनेगी (34)
ज़ुल्मों को जड़ से काट दे ये इतनी तेज़ है
अदना 'क़लम' न समझो इसे, एक नेज़ है (35)
न आँको 'राज' को कमतर कि बूढ़े हो रहे हैं वो
तपिस जाते हुए सूरज में भी कुछ कम नहीं होती (36)
कई गुज़रे, कई आयेंगे वक़्त बहता आब है
कोई भी ये नहीं सोचे कि वो ही लाजवाब है (37)
इबादत मैं ख़ुदा की करता हूँ, करता भी रहूँगा
फ़ायदा ये है कि इसमें मेरा नुक़सान नहीं है (38)
अगर तक़दीर की तासीर ख़ुद से तुम अलग कर दो
तो फिर इस 'राज' से किस मायने में तुम मुक़ाबिल हो (39)
राहों में हैं तो मंज़िल भी दूर नहीं है
सपनों में कटौती मुझे मंज़ूर नहीं है (40)
हो करके ज़ज़ीरा भी, जी रहा हूँ प्यास में
ग़ुम हो गया हूँ आजकल अपनी तलाश में (41)
हसीना सामने से ना जँचे उन्नत उरोजों बिन
बुरी पीछे से लगती है,जो उभरी बम नहीं होती (42)
ना जाने आज कैसी मोहब्बत का दौर है
पहलू में कोई और तसव्वुर में कोई और है (43)
इन्हें अब बेदख़ल कैसे करूं, अपनी किताबों से
मेरे दर्दों ने मेरे गीतों में............पनाह ले ली है (44)
महल जिनके हों ऊँचे वो डरें, घुट-घुट के वो जीयें
मैं बे-घर ज़लज़लों से, बर्क़ से, क्यूँ ख़ौफ़ खाऊँगा (45)
राज राजेश्वर
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