बस्ती-बस्ती, पर्वत-पर्वत......
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बस्ती-बस्ती,पर्वत-पर्वत ढूंढ रही तू किसको रानी?
स्मृति ढूंढी,संसृति ढूंढ, या प्रिय की विस्मृति ढूंढ,
वन उपवन के रंगमहल में,या ढूंढ लिया कुसुम स्मित,
होकर विकल क्या ढूंढा तुमनें पीड़ा कोई जानी पहचानी?
बस्ती- बस्ती, पर्वत-पर्वत ढूंढ रही तू किसको रानी।।
सुधियों का संसार नहीं है,इड़ा का आध्यात्म नहीं है,
न श्रद्धा का सुष्मित मुख,न व्रीड़ा का आह्वान कहीं है,
नहीं यहाँ है दूर-दूर तक मनु सी करुणामयी जवानी।
बस्ती-बस्ती,पर्वत-पर्वत ढूंढ रही तू किसको रानी।।
त्रेता के राम कहाँ मिलेंगे, कहाँ मिलेगी वनवासिन् सिय,
न मिलेगा भरत सा भाई अनुरागी, नहीं यहाँ कोई उर्मिला सी बैरागी,
तुमको यहाँ न मिल पाएगी रघुवँशों की संकल्पित बानी।
बस्ती-बस्ती, पर्वत-पर्वत ढूंढ़ रही तू किसको रानी॥
बरसाने की वृषभान किशोरी,कहाँ गयी वो माखन चोरी,
वंशीवट का रास रचइया, नहीं है अब वो यशोदा मइया,
सारा दुःख बता सकता है वृंदावन का ये श्यामल पानी।
बस्ती-बस्ती,पर्वत-पर्वत ढूंढ रही तू किसको रानी??
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कवयित्री: गुंजन गुप्ता
गढ़ी मानिकपुर, प्रतापगढ़ (उ.प्र.)
प्रस्तुति: डाटला एक्सप्रेस 5/2/2019